मुर्दा जमहूरियत - प्रोफ़ेसर कवलदीप सिंघ कंवल ऐ जमहूरियत न सोचा था कि ज़हनियतो-फ़ितरत होगी कभी तेरी ऐसी, लहु माँगती जमायतें और मौत पे जश्न मनाती भीड़ें हैं कंवल मैने देखी । तेरी मुनसिफ़ी को लाहनत रहेगी दिन-ऐ-क्यामत के बाद भी मेरी, कि लाशों से इबारतें लिखना 'गर इन्साफ कंवल तेरी अदालत का। आतंक-ऐ-निज़ाम देख कर भी 'गर चुपचाप जर जाती मेरी हस्ती, कैसे रखूँ कुव्वत कंवल सरफिरी हैवानियत बेपर्दा करने की । किसी की लाश है सकूँ देती 'गर ज़हनियत को तुम्हारी, तुम और कुछ भी हो कंवल इन्साँ तो बिलकुल भी नहीं । लाशें गिरायो और बहायो लहु के बदले लहु तुम लेकिन, इस हैवानियत को कंवल बस इन्साफ़ कहना छोड़ दो । किसी की जान लेने का है अख़तियार महज़ उस को, किसी मुर्दा को ज़िंदा करने की रखता जो कंवल हस्ती । न रहा कोई यकीन मुझे अब ऐ जमहूरियत तेरे होने का बाकी, कदम-दर-कदम ये एहसास कंवल तुम ने ख़ुद करवाया है । #कंवल
by अहं सत्य
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