यहाँ एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ जो कि अलग-अलग मंचों पर कई और वामपंथियों ने भी बेहद ही गलत तरीके से उठाई है, जिसमें कि या तो महज़ सही जानकारी का अभाव है या फिर एक बेहद ही विकृत मानसिकता और विचारधारा के अंतर्गत जानबूझकर गलत तथ्यों के आधार पर नवंबर 1984 के नरसंहार को खालिस्थान के साथ जुड़ा हुआ प्रस्तुत किया जा रहा है जबकि नवंबर 1984 का नरसंहार या उससे जुड़ी या फिर उससे पहले की कोई भी घटना जो पंजाब में सिख समुदाय से संबंधित है वह खालिस्तान आंदोलन के साथ कोई भी संबंध नहीं रखती । असल में पंजाब में चले आंदोलनों के पुरे परिदृश्य को 3 हिस्सों में देखना ही सही मायने में उसका विवेकशील तथा निष्पक्ष विवेचन होगा जिसमें सबसे पहला हिस्सा 1978 से लेकर 1984 तक का है जहां कहीं भी किसी भी रुप में खालिस्तान की मांग कोई मुद्दा नहीं रही थी बल्कि 1975 की इमरजेंसी से लेकर 1984 तक का समय केवल आनंदपुर साहिब के मते और भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरुप सामने लाई गई जनतांत्रिक मांगों पर आधारित था जिसमें पंजाब के पानी का मसला भी शामिल था । खालिस्तान की मांग को सही मायने में पंजाब की आंदोलन राजनीति में जगह ही भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा जून 1984 में किये गये ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद में मिली थी, जिसमें कि जरनैल सिंह भिंडरावाला (जो कि किसी ज़माने में इंदिरा गांधी का ही मोहरा माना जाता रहा था जिसको कि इंदिरा ने ही पंजाब के राजनीतिक पटल पर एक गरम पंथी सिख नेता के तौर पर जगह दिलाई थी ताकि 1975 में ऐमरजेंसी का विरोध करने वाले अकालियों को सबक सिखाया जा सके, जो कि बाद में निजी विश्वास और बहुत सारे और कारणों के चलते उसके हाथों से बाहर निकल कर अपनी आज़ाद हस्ती स्थापित कर चुका था और सिकखों के मन से जुड़े मसलों को बड़े ज़ोर-शोर से उठा कर उनकी एक बड़ी आबादी का वाहिद नेता बन चुका था) को सिक्खों के राजनीतिक मरकज़ अकाल तख़्त से बाहर निकालने के नाम पर उनके सबसे पवित्र स्थान हरिमंदर साहिब, जो कि समूची सिख कौम के लिए मुसलमानों के मुकद्दस मक्का शरीफ़ जैसा स्थान रखता है, पर हिंदुस्तान की सरकार द्वारा तोपों और टैंकों से हमला किया गया जो किसी भी जमहूरी निज़ाम की तारीख़ में अपनी ही आबादी पर समूची फ़ौजी ताक्त के प्रयोग की पहली घटना थी; जिसके कारण एक समूची कौमियत में इस मुल्क के प्रति बेगानापन पैदा होना लाज़िम ही था जो कि हुआ भी, और जिसका परिणाम इंदिरा गांधी की मृत्यु में निकला जिसको कि बहाना बनाकर नवंबर 1984 का कत्लेआम करवाया गया हालाकि उसकी तैयारी एक लंबे समय से बहुत पहले चल रही थी जिसका ज़िक्र डॉ़ संगत सिंह अपनी किताब में काफी तफ़सील से करते हैं । सो पंजाब के आंदोलनो का दूसरा हिस्सा 1984-85 से लेकर 1995 में पंजाब के तत्कालीन मुख्य-मंत्री बेअंत सिंह की मृत्यु तक चलता है जिसमें की खालिस्तान की माँग मुख्य मुद्दा था । तीसरा हिस्सा 1995-96 से लेकर आज तक का है जिसमें खालिस्तान कहीं भी मुख्य मुद्दा नहीं बच गया है । अब इन तीनों हिस्सों को समझने के बाद यह बात एकदम से साफ़ हो जाती है कि नवंबर 1984 का नरसंहार किसी भी प्रकार से खालिस्तान आंदोलन से जुड़ा हुआ नहीं था और न ही एक बेहद ज़लील तरीके से इसको खालिस्तान आंदोलन का प्रतिउत्तर कहना किसी भी प्रकार से वाजिब है, बल्कि यह केवल और केवल इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी के अंतर्गत चल रही सरकारों द्वारा एक समुदाय विशेष का पूर्व नियोजित ढंग से किया गया एक बेहद बेरहम कत्लेआम था, जिसकी मिसाल हिटलर की नाज़ी सेनायों द्वारा किए गए यहूदी कत्लेआम के इलावा मौजूदा इतिहास में कहीं और नहीं मिलती । #कंवल
by अहं सत्य
Join at
Facebook
No comments:
Post a Comment