लाहनत - प्रोफ़ेसर कवलदीप सिंघ कंवल हो मुबारक़ कंवल तुमको आया यह नया चाँद क्योंकि, बहा लहू जो नाम-ए-मज़हब पे ख़ूब सवाब बटोरा है । लहू-ए-बेगुनाह से हाथ रंगने वाले बस इतना बता दे मुझ को, कि लानत तुझको भेजूँ कंवल या तेरे पैगंबरो-ख़ुदा के नाम लिखूँ । ये लाशें ये चिथड़े यह लहू और गोश्तो-इंसानी की बू हर तरफ़ फैली, किस तरह फ़र्क करता होगा कंवल तू कत्ल़गाह और मज़हब में । तेरी जन्नत का दरवाज़ा जो मंज़र-ए-हैवानियत से गुज़रता है, मेरी बात छोड़ दे कंवल इंसानियत तमाम तुझ पर शर्मिंदा है । तेरे हंसते चेहरे भी कंवल अब तो लगते तकिया ही सब यूँ, इतना ख़ून का प्यासा हो ख़ुदा जिसका और कैसे वो मुस्कुरायेगा । बहुत भरम था कंवल नवाकिफ़ था जब तेरी हक़ीकत से, बिन असल जाने जो एक वहशी को मज़लूम समझता आया । #कंवल
by अहं सत्य
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